श्रृंगार रस
ये प्यार की विधाएं समझे नहीं समझता,
कब अश्रु जल बरसता, कब प्रेम रस सरसता।
अब तो हुआ हूं बेसुध बिलकुल नहीं सम्हलता,
कब प्यार में भटकता, कब दिल मेरा तड़पता।
ये दिल है कि दर्द मंजर जो बढ़ती रही विकलता,
यहां दिल नहीं बदलता, वहां वो नहीं बदलता।
ये कौन सी सजा है, वो कौन सी विवशता,
या मैं नहीं समझता, या वो नहीं समझता।।
अब हाय पपिहरा बन बिलख रहा, हर बूंद गिराई इतर-उतर,
मैं चातक चाह तड़पता रहा, वह मचल रही हर बदली पर।
पा न सका तुमको पाकर भी, पर मेरा यह अपराध नहीं है।
फिर भी रिश्तों में श्रेष्ठ तुम्हीं हो, कहता मेरा प्रेम यही है।।
तन-मन जीवन सब अर्पित कर, याचक बन कुछ मांग रहा हूं,
बरसा दो वह प्रेम सुधा बदली, जिस हेतु प्रिये मैं तड़प रहा हूं।
दिखती हो हर पल तुम मुझको, फिर ऐसे क्यों ढूंढ रहा हूं।
यदि मैं निश्चल प्रेम पथिक हूं, तब कर्तव्यों से विमूढ़ कहां हूं।।
अब जीवन भी बसता तुम में, फिर कैसे मैं जी पाऊंगा,
अगर तड़प ऐसी ही भोगी तो सावन नहीं बिताऊंगा।
तो सावन नहीं बिताऊंगा… तो सावन नहीं बिताऊंगा…!
ना श्वेत श्वेत ना श्याम श्याम
वो सुंदरता की प्रतिमा सी।
अपनी मादक आंखों से
वो मुझमें प्राण जगाती सी।
अपने सुगन्धित केशों में
वो कलियों को महकाती सी।
अनघड़ अनंत सितारों में
वो ‘चंद्रमुखी’ ‘चंदा’ जैसी।
रत्नों के भंडारों में
वो ‘मोती माला’ के जैसी।
हे रूप कामिनी ह्रदय हिरणी
तुम उत्साह को जगाती सी।
‘वीर बहादुर’ कवियों को
तुम ‘श्रृंगार’ पाठ पढाती सी।
हे सुंदर अंतर्मन वाली,
हे चेतन जड़ करने वाली।
तुम ‘श्रृंगार रस’ की जननी सी,
तुम ‘श्रृंगार रस की जननी’ हो।
-पंकज सिंह ‘विधार्थी’